अनुष्का सिंह
अब आए दिन आइपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के मामले दर्ज हो रहे हैं. 'कानून का दुरुपयोग' बताकर इसकी आलोचना की जा रही है, पर यह विचार यह नहीं समझ पा रहा कि यह दुरुपयोग किस तरह कानून और उसके अभीष्ट उपयोग की योजना का ही हिस्सा है. इस कानून के आलोचक राजद्रोह को परिभाषित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देकर इसके दुरुपयोग की तरफ उंगली उठाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में राजद्रोह को सरकार के खिलाफ ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया था जिसमें हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति हो. सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इंद्रा दास बनाम असम सरकार और अरूप भुयान बनाम असम सरकार मामलों में केवल उन्हीं अभिव्यक्तियों को अपराध ठहराया जो नजदीकी भविष्य में अराजक कार्रवाइयां भड़काने वाली हों. इस कानून की वास्तविकता न्यायिक विमर्श से कोसों दूर है और 'क्यों' प्रश्न का उत्तर मांगती है.
सरकार के विरुद्ध अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को अपराधी ठहराकर राजद्रोह का कानून उसे पीड़ित बनने की इजाजत देता है. राजद्रोह के तहत दर्ज हर मामले में आरोपी राजद्रोह का दोषी तभी बनता है जब सरकार (ठीक-ठीक कहें तो राज्य कार्यपालिका) यह मान लेती है कि इस अभिव्यक्ति के निशाने पर वह खुद है और इस तरह प्रताड़ित होने का बाना धारण कर लेती है. दुनिया भर के राजद्रोह कानून इस तरह बनाए गए हैं कि वे सत्ताधारियों को पूरी छूट देते हैं. राज्यसत्ता के विरुद्ध अपराधों में मुकदमा चलाने के लिए सरकार से इजाजत मांगने की प्रक्रिया इसी बुनियादी तर्क पर आधारित है कि यह सरकार को तय करना चाहिए कि कथित मामला प्रथम दृष्टया उसे निशाना बनाने की कोशिश है या नहीं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2018 के आंकड़े बताते हैं कि अदालतों ने पिछले वर्षों के लंबित मामलों सहित कुल 90 ऐसे मामले मुकदमा चलाने के मकसद से लिए, जिसका अर्थ है कि विभिन्न राज्यों की पुलिस के हाथों दर्ज कम से कम इन 90 मामलों में सरकार/रों ने मुकदमा चलाने की मंजूरी दी. सिर्फ 13 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और दो लोगों पर दोष सिद्ध हुआ और 11 बरी हो गए, जबकि बाकी मामले लंबित हैं. आंकड़ों के फासले को कानून के दुरुपयोग के तौर पर नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि यह इस तथ्य की गवाही देता है कि कानून को बनाया ही इस तरह गया है कि वह कार्यपालिका के हाथों इस्तेमाल के लिए सियासी औजार बन सके.
अनुमति लेने का प्रावधान कार्यपालिका की शक्ति को बढ़ा देता है. यह कार्यपालिका को कानूनी परिभाषा पर खरे नहीं उतरने वाले मामलों में अनुमति देने से मना करके राज्य की शक्ति के मनमाने प्रयोग पर रोक लगाने की वैकल्पिक भूमिका भी निभाने देता है. लिहाजा, 2016 के जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के राजद्रोह मामले में दिल्ली सरकार का यह कारण बताना कि अनुमति रोककर आपराधिक प्रक्रिया में दखल नहीं देना चाहती, लोकतांत्रिक हकों और संवैधानिक संकल्प की रक्षा का मौका गंवा देना है.
राजद्रोह के दर्ज ज्यादातर मामले, जिनमें कन्हैया कुमार और अन्य के विरुद्ध जेएनयू मामला भी है, मोटे तौर पर 'राष्ट्र विरोधी' बयानों की कानूनेतर श्रेणी में आते हैं. इन्हें पुन: कानून की उस योजना के तौर पर देखने की जरूरत है, जो राज्य कार्यपालिका को इस कानून की परिभाषा को ताक पर रखकर राजद्रोह को नए मायने देने और विशिष्ट उद्देश्यों से इसका इस्तेमाल करने की इजाजत देती है. राजद्रोह का लोकप्रिय हिंदी अनुवाद—'देशद्रोह'—कथित 'राष्ट्र विरोधी' बयानों के खिलाफ राजद्रोह कानून के बढ़ते इस्तेमाल का नतीजा है. यह राज्य कार्यपालिका के खिलाफ इस कानून के इस्तेमाल को तीन तरह से मजबूत करता है. पहला, जो कृत्य राष्ट्रवाद के प्रभावी विमर्श के लिए अप्रिय पर उन्हें अपराधी ठहराने के लिए कोई कानून न मिले, तो उन्हें राजद्रोही अभिव्यक्ति के तौर पर दर्ज करके निशाना बनाया जा सकता है, जैसा कि फरवरी 2020 में बेंगलूरू में दर्ज एक मामले में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' बोलने पर किया गया था.
दूसरे, ऐसे मामलों में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करने से सरकार-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी के बीच का फर्क खत्म कर दिया जाता है. तीसरा, कथित 'राष्ट्र विरोधियों' को निशाना बनाने के लिए किसी दूसरे कानून की गैरमौजूदगी में उनके खिलाफ राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल करने के लिए सरकार को लोकप्रिय समर्थन मिल जाता है.
इस कानून के इस्तेमाल के लिए सरकार को समर्थन देकर हम सत्ताधारियों को राष्ट्र और राष्ट्रवाद को परिभाषित, रूपांतरित और उनके साथ छेड़छाड़ करने के लिए अधिकृत कर देते हैं. इस तरह हम सत्ता की आंख में चुभने वाले किसी भी शख्स को निशाना बनाने के लिए इसका इस्तेमाल करने की इजाजत दे देते हैं.
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