राजस्थान कांग्रेस का सियासी संकट 'गांधी परिवार' के हस्तक्षेप के बाद फिलहाल सुलझ गया है. एक महीने तक कांग्रेस के लिए चुनौती बने सचिन पायलट कैंप को समझाने में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने अहम भूमिका निभाई. ऐसे में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बागी रुख अख्तियार करने वाले सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों की 'घर वापसी' हो गई है. इसके बावजूद सचिन पायलट के सामने कांग्रेस में आगे की सियासी राह बेहद मुश्किल और पथरीली नजर आ रही है.
कांग्रेस हाईकमान ने सचिन पायलट कैंप के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ मतभेद सुलझाने और उनकी मांगों पर विचार करने के लिए तीन सदस्यीय कमेटी बनाई है. इस कमेटी की रिपोर्ट और सिफारिशों के बाद उन पर होने वाले अमल पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस की सियासत किस तरफ मोड़ लेती है. हालांकि, यह अलग बात है कि गहलोत गुट के करीब एक दर्जन विधायक बागियों को वापस लेने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन हाईकमान के बदले रुख ने उन्हें मजबूर कर दिया है.
सचिन पायलट ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और डिप्टी पद गंवाने के साथ-साथ पार्टी में आगे की राह बेहद मुश्किल कर ली है. बागी रुख अख्तियार करने के दौरान पायलट बार-बार मान-सम्मान और स्वाभिमान की बात करते रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान के दखल के बाद पायलट की घर वापस हो गई है, लेकिन उनकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में बनी रहेगी. ऐसे हालात में नहीं लगता कि पार्टी उन्हें फिलहाल राजस्थान में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपेगी.
राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार श्याम सुंदर शर्मा कहते हैं कि पायलट कांग्रेस में लौट तो आए हैं लेकिन उनका आगे का रास्ता क्या होगा यह अहम सवाल है. राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी उन्हें मिलना बेहद मुश्किल है, क्योंकि राजनीति में ये इतना आसान नहीं है कि किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर हटाया जाए. खासकर जाट नेता को. बगावत के बाद पायलट के लिए हालात पहले जैसे आसान नहीं होंगे, क्योंकि कांग्रेस आलाकमान भी इस बात को समझ चुका है कि पायलट अति महत्वाकांक्षी हैं. ऐसे में उनके हर कदम पर पार्टी की अब नजर होगी.
वहीं, कांग्रेस को करीब से देखने वाले शकील अख्तर कहते हैं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ करीब एक माह तक बगावती तेवर अपनाने वाले सचिन पायलट ने इतनी आसानी से हथियार नहीं डाले हैं. गहलोत के राजनीतिक तिकड़म के आगे पायलट ने अपनी योजना में पूरी तरह से विफल रहने के बाद ही समझौते की राह चुनी है, क्योंकि धीरे-धीरे उनके राजनीतिक विकल्प खत्म होते जा रहे थे. इसके बाद ही उनके तेवर ढीले पड़े हैं और कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के हस्तक्षेप के बाद समझौते का फॉर्मूला तय हो सका है. इतनी कड़वी तकरार के बाद पायलट का अशोक गहलोत के साथ काम करना आसान नहीं होगा. इसके अलावा पायलट की जो राजनीतिक अहमियत और कद था, उसे दोबारा से पाने के लिए उन्हें अपनी क्षमता के साथ-साथ वफादारी पेश करनी होगी.
ऐसे में सचिन पायलट को पार्टी में अपना सफर नए सिरे से शुरू करना होगा. पार्टी के विश्वास एक बार फिर हासिल करना होगा और साथ ही 'गांधी परिवार' के बीच अपनी विश्वसनीयता की डोर को फिर से मजबूत करना होगा. इतना ही नहीं अब उन्हें कांग्रेस सरकार को स्थिर रखने की चुनौती भी होगी. इसके बाद ही पार्टी उन्हें कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपने के बारे में विचार कर सकती है. ऐसे में फिलहाल पायलट को बहुत बेसब्र हुए बैगर सब्र के साथ महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए इंतजार करना होगा.
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