सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना पुलिस की बिना सोचे समझे एहतियातन हिरासत में लेने वाले कानून का इस्तेमाल करने के लिए आलोचना की है. कोर्ट ने कहा है कि आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. वहीं कुछ पुलिस अधिकारी लोगों की स्वतंत्रता को बाधित कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी हिरासत में ली गई एक महिला के पति के हिरासत संबंधी आदेश को रद्द करते हुए की. हिरासत संबंधी कानून के इस्तेमाल पर सोमवार को अदालत ने तेलंगाना पुलिस की जमकर आलोचना की.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिसक दीपांकर दत्ता की बेंच ने हिरासत के एक आदेश को रद्द करते हुए कहा कि वह तेलंगाना में अधिकारियों को यह याद दिलाना चाहते हैं कि अधिनियम के कठोर प्रावधानों को अचानक से नहीं लागू किया जाना चाहिए. जब कि देश अंग्रेजी शासन से आजादी के 75 साल पूरे होने पर 'आजादी का अमृत महोत्सव' मना रहा है.
कोर्ट ने कहा कि तेलंगाना के कुछ पुलिस अधिकारियों को अपराध रोकने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, उनके ऊपर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी है.लेकिन पुलिस के रवैये से ऐसा लगता है कि वह संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों से बेखबर हैं और लोगों की स्वतंत्रता को बाधित कर रहे हैं. बेंच ने कहा कि पुलिस अधिकारी जितनी जल्दी इस रवैये को खत्म करें उतना ही बेहतर होगा.
शीर्ष अदालत ने कहा कि भारत के संविधान निर्माताओं ने निवारक हिरासत को एक असाधारण उपाय के रूप में रखा था. लेकिन सालों से इसे लेकर हो रही लापरवाही की वजह से इसे सामान्य बना दिया गया है. जैसे कि नॉर्मल एक्शन में भी इसका उपयोग किया जा सकता है. कोर्ट ने हिरासत अधिनियम के इस्तेमाल के लिए तेलंगाना पुलिस की खिंचाई करने के साथ ही राज्य में हिरासत कानून पर चिंता जाहिर की. कोर्ट ने कहा कि हर मामले में हिरासत की अवधि तथ्यों और परिस्थितियों के मामले में अलग-अलग होनी चाहिए. हर मामला एक जैसा नहीं हो सकता.
कोर्ट के मुताबिक हिरासत किसी भी व्यक्ति की पर्सनल फ्रीडम के अधिकार पर प्रतिबंध है. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि निवारस हिरासत की बेड़ियों को खोलने के लिए संविधान में दिए गए सुरक्षा उपायों को, खासकर अनुच्छेद 14, 19 और 21 द्वारा गठित 'स्वर्ण त्रिकोण' के तहत लागू किया जाए. अनुच्छेद 14 कानून समानता से संबंधित है और अनुच्छेद-19 भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी सेसंबंधित है. अनुच्छेद- 21 भारत के नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. ये देश के नागरिकों को संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकार हैं. मौजूदा मामले का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संबंधित प्राधिकारी उन अपराधों के बीच अंतर करने में असफल रहे हैं जो "कानून और व्यवस्था" की स्थिति पैदा करते हैं.
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