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भारत

किसान आंदोलन: दिल्ली की दहलीज़ पर खड़े 'दरख़्तों' की आँखें

आप शायद सोचते हों कि ये अच्छे-भले किसान... ये विरोध-प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं. वो ऐसे कानून को वापस लिए जाने की ज़िद पर क्यों अड़े हैं जिसे सरकार ऐतिहासिक बता रही है. सत्ता के कुछ चेहरे इन्हीं किसानों की शकलों में कभी नक्सली तो कभी राजद्रोही अक्स देख रहे हैं. इस विरोध की अंतरकथा, इसकी असली तस्वीर क्या है, यह समझने के लिए हमें बड़ी बहसों और बयानों से इतर उन आंखों को देखना चाहिए, जो सवाल लेकर सत्ता की राजधानी की सीमा पर खड़ी हैं.

 

दिल्ली की चौखट पर खड़ी इन आंखों में झांककर देखिए... ये यहां की नहीं हैं. ये यहां के नहीं हैं. तो फिर तिरपाल के अस्थायी मुंडेरों में सिमटकर सामने पसरी काली सड़क को देखती ये आंखें क्या हैं, किसकी हैं. क्योंकर ये बिछी हैं इस महानगरी के मुहाने पर...

 

इन आंखों में आपको कौन दिखता है... राजद्रोही, कोई माओवादी या खालिस्तानी... सत्ता की नज़रों से संदेह दिखाया जा रहा है... कहा जा रहा है कि इन चेहरों की ओट में कुछ देशद्रोही सरकार को बदनाम करने उसकी चौखट पर आ गए हैं. कुछ असामाजिक लोग हैं जिन्हें बस सरकार को परेशान करना है.

 

इन आंखों में झांककर देखिए और सोचिए कि अर्थशास्त्र के महान सिद्धांतों और क़ानून की पेचीदा गलियों से ये नज़रें कितना वाकिफ हैं. जो हफ्ते के सात दिनों का हिसाब नहीं जानते, वो कितना समझते हैं आर्थिक सुधार की व्यापक अवधारणाएं और उनके लिए सरकार की ऐतिहासिक तैयारियां.

 

ये आंखें, दरअसल सिंघु बॉर्डर पर संगम जैसा गीलापन लिए खड़ी हैं. इस गीलेपन में दर्द की, गुस्से की और डर की त्रिवेणी है. और इन आंखों को खोती नज़र आ रही है अतीत की एक परंपरा, बिखरता नज़र आ रहा है वर्तमान का उत्तरजीवित्व, डूबता नज़र आ रहा है भविष्य... अपना, अपनी चमड़ी जैसी मिट्टी और सांसों जैसे गांव का.

 

सरकार बार-बार समझाने लगती है इन आंखों को कि आपके लिए हमसे बेहतर कोई नहीं सोच सकता. किसी ने नहीं सोचा. हमने सोचा, हमने किया. लेकिन आंखें पूछती हैं.... हम कहां हैं तुम्हारे इस सोचने में. हमारे अंदर झांककर देखते... कंधे पर हाथ रखकर कभी नज़रें मिलाते और हमें देखने देते वो विश्वास, वो सच्चाई, जिसका बखान नज़रें चुराकर किया जा रहा है.

 

और फिर सुधारों की ये बैसाखी सरकार कोरोना की काली घटाओं के वक्त ही क्यों मनाना चाहती है. महामारी का वक्त है. थोड़ा धीरज रखते. रास्तों को, संवाद को, लोगों को खुलने देते. मिलने देते. पूछने और कहने का समय देते, अवसर देते. सुनते... फिर कहते और कहते-सुनते सुधारों की जो सहमति बनती, उसपर चलते. ऐसे असमय क्यों, अचानक क्यों, अकेले क्यों.

 

सत्ता खीझकर कहती है... हम तुम्हें अभावों और अवसरहीनता के अंधे कुंओं से निकालना चाहते हैं. इन कुंओं से निकलो. इन दायरों से उट्ठो. लेकिन ये आंखें हैं जो कहती हैं कि दशकों की उपेक्षा और गैर-बराबरी में यह कच्ची मिट्टी और कुंआ ही तो हमारे हिस्से में बचा है. तो क्या कुंए भी हमसे.... दिल्ली के दालान में भरता कोहरा भी इन सवालों को सोख नहीं पाता.

 

आंखें पूछती हैं... हमारे कुंए तो ले लोगे... लेकिन फिर कौन सा मॉडल उतरेगा हमारे खेतों में बीज रोपने.... और इन सपनीले मॉडलों की सुंदर कहानियां किन राज्यों में दिखाई देती हैं भला... हमें भी तो बताओ इन सुधारों के परीकथाओं जैसे किस्से. असल में, इन आंखों की याद्दाश्त बताती है कि निजीकरण कभी अच्छा था ही नहीं... न अपनापन, न भरोसेमंद.

 

सुधारक शायद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि निजीकरण की थाली में रखा विकास का कलेवा इन आंखों को ठग नहीं सकता. ये आंखें... जिन्होंने सूरज से पहले निकलपर खेतों को मेहनत की धूप दी है और तारों से भी ज़्यादा चाहा है अपनी फसलों के दानों को... जिन्हें महबूब के आंचल-सा देखा है सरसों का लहराता खेत और चंदा से ज़्यादा चाहा है लकड़ी के मूठ वाली हसिया को.

 

ऐसा नहीं है कि इन आंखों में बसी दुनिया के कुंए बस मीठा पानी देते हैं. कितने ही दर्द हैं, तकलीफें हैं, दुश्वारियां हैं. शोषण का, धोखे का, उपेक्षा का एक पूरा इतिहास है जो निजी कंपनियों तो कभी ठेकेदारों का भेष धरकर इन आंखों में धूल उछालता आया है.

 

अन्न के इन देवताओं की आंखें जब याद करती हैं सरकारी चढ़ावों की उस थाली को जिसमें छह हज़ार रूपए का उपहार उनके खातों में डाल दिया गया था... वो सिहर जाती हैं पूर्वजों की उन कथाओं से जिसमें एक पुजारी मंदिर में चढ़ाता है प्रसाद और उड़ा ले जाता है देवताओं के मुकुट, आभूषण, वस्त्र.

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