पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी जीत ने यह बात फिर से साफ कर दी है कि ममता बनर्जी एक 'फाइटर' हैं। इस जीत के बाद उन्होंने यह भी साबित कर दिया कि बंगाल में उन सा लोकप्रिय नेता और कोई नहीं। संभव है कि इस सफलता के बाद ममता अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका के बारे में भी सोचें और 2024 चुनाव से पहले गैर बीजेपी पार्टियों के गठबंधन का नेतृत्व करें। बंगाल में 'दीदी' कही जाने वाली ममता बनर्जी अब ऐसी नेता बन गई हैं जिन्होंने भारत की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों- लेफ्ट, कांग्रेस और बीजेपी को हराकर जीत हासिल की है।
बनर्जी ने इसकी शुरुआत लेफ्ट पार्टी से की। उन्होंने 1984 के लोकसभा चुनाव में सोमनाथ चटर्जी को हराया। हालांकि, बंगाल में लेफ्ट सरकार की विपक्षी पार्टी बने रहना बनर्जी को रास नहीं आ रहा था। वह सड़कों पर उतरीं, चोटें खाईं और अपने सहयोगियों कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क तैयार किया, जो लेफ्ट सरकार को गिराने में उनकी मदद करतें। उन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर में राजनीतिक उपलब्धि को न सिर्फ भांपा बल्कि उसे अच्छे से भुनाया। लेफ्ट पर निशाना साधते हुए और खुद को गरीबों की आवाज बताने का दावा करते-करते ममता ने साल 2011 में लेफ्ट पार्टी की सरकार को राज्य से उखाड़ दिया।
हालांकि, इससे पहले ममता ने अपनी ही पार्टी यानी कांग्रेस की केंद्र आधारित राजनीति का सामना किया। ममता को यह यकीन था कि राज्य में कांग्रेस कभी भी लेफ्ट की मजबूत विकल्प नहीं बनेगी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उसका मुकाबला बीजेपी से है। खुद को साइडलाइन किए जाने और पार्टी की अंदरूनी कलहों से परेशान होकर बनर्जी ने आखिरकार कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया और राज्य की राजनीति में बदलाव लाईं।
लेफ्ट को हराने के एक दशक बाद अब, बनर्जी ने बीजेपी को हराया है। वह भी तब जब बीजेपी किसी भी क्षेत्रिय नेता के लिए एक बड़ी चुनौती है।
बनर्जी कभी भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी हुआ करती थीं। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वह मंत्री भी थीं। लेकिन उनका पूरा ध्यान बंगाल पर केंद्रित था। उन्होंने यह समझ लिया था कि वह लेफ्ट को तभी हरा सकती हैं जब मुस्लिम वोट उनके हिस्से में आ जाए। इसके बाद उन्होंने बीजेपी से दूरी बनाना शुरू किया।
इतने सालों में बनर्जी पर यह आरोप लगते आए हैं कि वह मुस्लिमों के तुष्टिकरण की राजनीति करती हैं। हालांकि, उन्होंने कुछ ऐसे कदम उठाए जो इन आरोपों को हवा देते हैं। इतना ही नहीं उन्होंने लेफ्ट फ्रंट की तरह ही अपनी पार्टी में अलोकतांत्रिक ढर्रा अपना लिया। बाकी कारणों के अलावा, ये दो ऐसे बड़े कारण थे जिसकी वजह से बीजेपी ने बंगाल में मजबूती पाई और 2019 के लोकसभा चुनावों में उसे राज्य की 18 सीटों पर जीत मिल गई।
हालांकि, बीजेपी की जीत ममता के लिए खतरे की घंटी बनी और यहां से उन्होंने कई सुधार करने शुरू कर दिए। पहला कदम, उन्होंने प्रशांत किशोर को अपने सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया, कल्याणकारी योजनाओं के जरिए जनता तक अपनी सरकार की पहुंच बनाई, मुस्लिमों के तुष्टिकरण की राजनीति को थोड़ा कम किया और इन सबसे ऊपर खुद को हिंदू बताना शुरू कर दिया। ममता के पार्टी के दिग्गज नेता साथ छोड़ते रहे लेकिन बनर्जी ने अपना आपा नहीं खोया। 2019 की गलतियों को सुधारना ममता के लिए काम कर गया और जैसे उन्होंने लेफ्ट और केंद्र को हराया था वैसे ही अब उन्होंने 2021 में दक्षिणपंथी पार्टी को हराया।
इस जीत के बाद संभव है कि दीदी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जमीन तलाशें लेकिन बीते सात सालों में यह साफ हो गया है कि क्षेत्रिय स्तर पर सफलता मिलने का यह अर्थ नहीं कि नेता राष्ट्रीय स्तर पर भी जीत हासिल करे। लेकिन यह भविष्य की बात है। फिलहाल ममता बनर्जी बंगाल की सबसे बड़ी विजेता हैं।
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